जब 1000 अमर राक्षसों से हनुमान जी अकेले लड़ने लगे



हनुमानजी का अद्भुत पराक्रम
 
          जब रावण ने देखा कि हमारी पराजय निश्चित है तो उसने 1000 अमर राक्षसों को बुलाकर रणभूमि में भेजने का आदेश दिया। ये ऐसे थे जिनको काल भी नहीं खा सका था।
          विभीषण के गुप्तचरों से समाचार मिलने पर श्री राम को चिन्ता हुई कि हम लोग इनसे कब तक लड़ेंगे ? सीता का उद्धार और विभीषण का राज तिलक कैसे होगा ? क्योंकि युद्ध की समाप्ति असंभव है।
          श्रीराम कि इस स्थिति से वानरवाहिनी के साथ कपिराज सुग्रीव भी विचलित हो गए कि अब क्या होगा ? हम अनंत काल तक युद्ध तो कर सकते हैं पर विजयश्री का वरण नहीं ! पूर्वोक्त दोनों कार्य असंभव हैं।
          अंजनानंदन हनुमान जी आकर वानर वाहिनी के साथ श्रीराम को चिंतित देखकर बोले–'प्रभु ! क्या बात है ?'
          श्रीराम के संकेत से विभीषण जी ने सारी बात बतलाई। अब विजय असंभव है।
          पवन पुत्र ने कहा–'असम्भव को संभव और संभव को असम्भव कर देने का नाम ही तो हनुमान है। प्रभु ! आप केवल मुझे आज्ञा दीजिए मैं अकेले ही जाकर रावण की अमर सेना को नष्ट कर दूँगा।'
          'परन्तु कैसे हनुमान ? वे तो अमर हैं'–श्रीरामजी ने कहा।
         ' प्रभु ! इसकी चिंता आप न करें, बस सेवक पर विश्वास करें'–हनुमान बोले।
          उधर रावण ने चलते समय राक्षसों से कहा था कि, वहाँ हनुमान नाम का एक वानर है उससे जरा सावधान रहना । 
          एकाकी हनुमानजी को रणभूमि में देखकर राक्षसों ने पूछा–'तुम कौन हो ? क्या हम लोगों को देखकर भय नहीं लगता जो अकेले रणभूमि में चले आये।'
मारुति बोले–'क्यों आते समय राक्षसराज रावण ने तुम लोगों को कुछ संकेत नहीं किया था जो मेरे समक्ष निर्भय खड़े हो।'
          निशाचरों को समझते देर न लगी कि ये महाबली हनुमान हैं। फिर भी वे सोचे–'तो भी क्या ? हम अमर हैं, हमारा ये क्या बिगाड़ लेंगे।'
          भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। पवनपुत्र की मार से राक्षस रणभूमि में ढेर होने लगे। चौथाई सेना बची थी कि पीछे से आवाज आई–'हनुमान हम लोग अमर हैं‌ हमें जीतना असंभव है। अतः अपने स्वामी के साथ लंका से लौट जाओ, इसी में तुम सबका कल्याण है।'
          आंजनेय ने कहा–'लौटूँगा अवश्य पर तुम्हारे कहने से नहीं, अपितु अपनी इच्छा से। हाँ तुम सब मिलकर आक्रमण करो फिर मेरा बल देखो और रावण को जाकर बताना।'
          राक्षसों ने जैसे ही एक साथ मिलकर हनुमानजी पर आक्रमण करना चाहा, वैसे ही पवनपुत्र ने उन सबको अपनी पूँछ में लपेटकर ऊपर आकाश में फेंक दिया।
          वे सब पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति जहाँ तक है वहाँ से भी ऊपर चले गए, चले ही जा रहे हैं।

        'चले मग जात सूखि गए गात'–(गोस्वामी तुलसीदास)

          उनका शरीर सूख गया अमर होने के कारण मर सकते नहीं। अतः रावण को गाली देते हुए और कष्ट के कारण अपनी अमरता को कोसते हुए अभी भी जा रहे हैं। इधर हनुमान जी ने आकर प्रभु के चरणों में शीश झुकाया।
          श्रीराम बोले–'क्या हुआ हनुमान ?'
          'प्रभु ! उन्हें ऊपर भेजकर आ रहा हूँ।'
          राघव–'पर वे अमर थे हनुमान।'
          'हाँ स्वामी इसलिए उन्हें जीवित ही ऊपर भेज आया हूँ, अब वे कभी भी नीचे नहीं आ सकते ? रावण को अब आप शीघ्रातिशीघ्र ऊपर भेजने की कृपा करें। जिससे माता जानकी का आपसे मिलन और महाराज विभीषण का राजसिंहासन हो सके।'
          पवनपुत्र को प्रभु ने उठाकर गले लगा लिया। वे धन्य हो गए अविरल भक्ति का वर पाकर। श्रीराम उनके ऋणी बन गए और बोले–'हनुमान जी ! आपने जो उपकार किया है, वह मेरे अंग-अंग में ही जीर्ण-शीर्ण हो जाय। मैं ! उसका बदला न चुका सकूँ। क्योंकि उपकार का बदला विपत्तिकाल में ही चुकाया जाता है। पुत्र ! तुम पर कभी कोई विपत्ति न आये।' यह सुनकर निहाल हो गए आंजनेय।
          हनुमान जी की वीरता के समान साक्षात काल, देवराज इन्द्र, महाराज कुबेर तथा भगवान विष्णु की भी वीरता नहीं सुनी गयी। ऐसा कथन श्रीराम का है–
             न कालस्य न शक्रस्य न विष्णर्वित्तपस्य च।
             कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमतः॥
      

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